नई दिल्ली: महाराष्ट्र से भी भगवा दूर हो गया। आज से ठाकरे राज का आगाज होने जा रहा है। राज्य में आज शाम शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की गठबंधन सरकार का गठन हो जाएगा। भाजपा इस सरकार को शायद ही पचा सके क्यू कि शिवसेना और भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था लेकिन शिवसेना की जिद के सामने भाजपा की दाल नहीं गली। सरकार बनी भी तो तीन दिन में गिर गई। अजीत पंवार भी उद्धव ठाकरे जैसे ही निकले।
इस समय भाजपा के पास उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, एनडीए का साल 2017 में 72 फीसदी आबादी पर शासन था। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सत्ता उसके हाथ से जाने पर वह 41 फीसदी आबादी तक सीमित होकर रह गया है। अब महाराष्ट्र भी भाजपा के हाथ से चला गया। भाजपा तमिलनाडु में सरकार के साथ है, लेकिन विधायक एक भी नहीं है। हरियाणा में महाराष्ट्र के साथ ही चुनाव हुए लेकिन यहाँ भाजपा ने जजपा से मिल साकार बना ली।
हालांकि, मिजोरम और सिक्किम जैसे छोटे राज्य एनडीए के खाते में आए हैं। इस तरह से अब 17 राज्यों में एनडीए सरकार है। इनमें से 13 राज्यों में भाजपा और चार राज्यों में सहयोगी दलों के मुख्यमंत्री हैं।
महाराष्ट्र खोने से भाजपा काफी कुछ खो बैठी है क्यू कि देश के 40 फीसदी से ज्यादा कॉर्पोरेट ऑफिस महाराष्ट्र में ही हैं। चुनावी चंदे में इनका बड़ा योगदान है। उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा 48 लोकसभा सीटें महाराष्ट्र में हैं। यही वजह है कि एनडीए के लिए महाराष्ट्र काफी अहम है। अब भाजपा की निगाहें दिल्ली और झारखंड चुनावों पर हैं।
आखिर क्या हुआ ऐसा जो पार्टी का ग्राफ इतना गिरता जा रहा है। भाजपा की स्थानीय सरकारों को जनता नहीं पसंद कर रही है। कुछ न कुछ कमियां तो जरूर हैं। सूत्रों की मानें तो जहां भाजपा की सरकारें हैं वहाँ सीएमओ में कम तजुर्बेकार नेताओं और अधिकारियों को ज्यादा जगह मिल रही है। सिफारिश लगाकर नेता और अधिकारी सीएमओ में पहुँच रहे हैं। जिसने कभी ग्राम सभा या निगम का भी चुनाव नहीं जीता ऐसे लोगों को सीएमओ में लगाया गया है।
जो निगम का भी चुनाव जीतता है उसे जनता के दुःख दर्द का पता होता है। एक निगम पार्षद सुबह 6 बजे ही उठ जाता है और देर रात्रि सोने का समय मिलता है क्यू कि दिन भर उसकी फोन की घंटी बजती रहती है। कोई नाली सफाई के लिए फोन करता है तो कोई बिजली पानी के लिए। शायद ही कोई पार्षद हो जिसके पास दिन भर में 100 फोन न आएंगे। अगर कोई पांच साल पार्षद रह गया तो उसे जनता के बारे सब कुछ पता चल जाता है। जिसने कभी दाल नहीं बनाई और न दाल बनते देखा उसे क्या पता कि दाल में कितना नमक डालना है। ऐसे लोग दाल बनाएंगे तो हो सकता है नमक कम ज्यादा हो जाए या दाल ही कच्ची-रह जाये या ज्यादा गल जाए। देश का जो भी नेता पहले छोटा चुनाव जीता , यानि पार्षद या ग्राम प्रधान बना, उसके बाद विधायक बना, फिर सांसद बना उसे जनता की नब्ज का पता होता है।
वो जनता की समस्या जानता है। देश में अब भी ऐसे कई नेता हैं जो 10 बार से ज्यादा समय से विधानसभा का चुनाव जीतते आ रहे हैं। उनमे कुछ तो खासियत होगी। कई बार देखा जाता है कि चुनावों के समय अचानक ऐसे नेताओं को टिकट मिल जाती है जो राजनीती के क्षेत्र में नए होते हैं। कहा जाता है कि ऐसे नेता पैसे से टिकट लाते हैं। किसी भी पार्टी के लिए ये भी ठीक नहीं है।
सोशल मीडिया का ज़माना है। जनता बड़े नेताओं को ट्वीट कर अपनी समस्या बताती है लेकिन सीएमओ के कामचोर जनता की समस्या का समाधान नहीं करते। दफ्तर में बैठकर मलाई खाते रहते हैं और भुगतना सरकार को पड़ता है। चुनावों में जनता कुर्सी छीन लेती है।
बड़े नेता और बड़े अधिकारी दफ्तरों में बैठ जितने आदेश देते हैं, जमीन पर उनका आदेश 25 फीसदी भी नहीं पूरा होता। नेताओं के आगे पीछे सिफारिश वाले अधिकारी घूमते हैं इसलिए नेता उन्हें कुछ बोल भी नहीं पाते। भाजपा के गिरते ग्राफ का एक बड़ा कारण ये भी है कि भाजपा शाषित सरकारों में आरएसएस के कम कम तजुर्बेकार कार्यकर्ताओं की भी हद से ज्यादा भर्ती हो रही है। पिछले चार-पांच वर्षों में सैकड़ों कम तजुर्बेकार आरएसएस कार्यकर्ता बड़े पदों पर बैठे हैं। एक कड़वा सच ये भी है कि भ्रष्टाचार उतना कम नहीं हुआ है जितना भाजपा की सरकारें दावे करती हैं। कई राज्यों में तो और बढ़ गया है। अधिकतर राज्यों में कम तजुर्बेकार नेता मंत्री बना दिए जाते हैं और उनमे से कई घमंडी हो जाते हैं।
देश में अब अधिकतर लोग शिक्षित हैं अच्छा बुरा जानते हैं। लगभग हर हाथ में स्मार्ट फोन है। नेता जो बोलते हैं अगर वो नहीं करते हैं तो जनता उन्हें सबक सिखाने की तैयारी में जुट जाती है और जनता नेताओं से बताती भी नहीं है कि इस बार आपकी कुर्सी छीन लेंगे। मतदान वाले दिन जनता अपने भड़ास निकाल लेती है।
इस समय भाजपा के पास उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, एनडीए का साल 2017 में 72 फीसदी आबादी पर शासन था। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सत्ता उसके हाथ से जाने पर वह 41 फीसदी आबादी तक सीमित होकर रह गया है। अब महाराष्ट्र भी भाजपा के हाथ से चला गया। भाजपा तमिलनाडु में सरकार के साथ है, लेकिन विधायक एक भी नहीं है। हरियाणा में महाराष्ट्र के साथ ही चुनाव हुए लेकिन यहाँ भाजपा ने जजपा से मिल साकार बना ली।
हालांकि, मिजोरम और सिक्किम जैसे छोटे राज्य एनडीए के खाते में आए हैं। इस तरह से अब 17 राज्यों में एनडीए सरकार है। इनमें से 13 राज्यों में भाजपा और चार राज्यों में सहयोगी दलों के मुख्यमंत्री हैं।
महाराष्ट्र खोने से भाजपा काफी कुछ खो बैठी है क्यू कि देश के 40 फीसदी से ज्यादा कॉर्पोरेट ऑफिस महाराष्ट्र में ही हैं। चुनावी चंदे में इनका बड़ा योगदान है। उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा 48 लोकसभा सीटें महाराष्ट्र में हैं। यही वजह है कि एनडीए के लिए महाराष्ट्र काफी अहम है। अब भाजपा की निगाहें दिल्ली और झारखंड चुनावों पर हैं।
आखिर क्या हुआ ऐसा जो पार्टी का ग्राफ इतना गिरता जा रहा है। भाजपा की स्थानीय सरकारों को जनता नहीं पसंद कर रही है। कुछ न कुछ कमियां तो जरूर हैं। सूत्रों की मानें तो जहां भाजपा की सरकारें हैं वहाँ सीएमओ में कम तजुर्बेकार नेताओं और अधिकारियों को ज्यादा जगह मिल रही है। सिफारिश लगाकर नेता और अधिकारी सीएमओ में पहुँच रहे हैं। जिसने कभी ग्राम सभा या निगम का भी चुनाव नहीं जीता ऐसे लोगों को सीएमओ में लगाया गया है।
जो निगम का भी चुनाव जीतता है उसे जनता के दुःख दर्द का पता होता है। एक निगम पार्षद सुबह 6 बजे ही उठ जाता है और देर रात्रि सोने का समय मिलता है क्यू कि दिन भर उसकी फोन की घंटी बजती रहती है। कोई नाली सफाई के लिए फोन करता है तो कोई बिजली पानी के लिए। शायद ही कोई पार्षद हो जिसके पास दिन भर में 100 फोन न आएंगे। अगर कोई पांच साल पार्षद रह गया तो उसे जनता के बारे सब कुछ पता चल जाता है। जिसने कभी दाल नहीं बनाई और न दाल बनते देखा उसे क्या पता कि दाल में कितना नमक डालना है। ऐसे लोग दाल बनाएंगे तो हो सकता है नमक कम ज्यादा हो जाए या दाल ही कच्ची-रह जाये या ज्यादा गल जाए। देश का जो भी नेता पहले छोटा चुनाव जीता , यानि पार्षद या ग्राम प्रधान बना, उसके बाद विधायक बना, फिर सांसद बना उसे जनता की नब्ज का पता होता है।
वो जनता की समस्या जानता है। देश में अब भी ऐसे कई नेता हैं जो 10 बार से ज्यादा समय से विधानसभा का चुनाव जीतते आ रहे हैं। उनमे कुछ तो खासियत होगी। कई बार देखा जाता है कि चुनावों के समय अचानक ऐसे नेताओं को टिकट मिल जाती है जो राजनीती के क्षेत्र में नए होते हैं। कहा जाता है कि ऐसे नेता पैसे से टिकट लाते हैं। किसी भी पार्टी के लिए ये भी ठीक नहीं है।
सोशल मीडिया का ज़माना है। जनता बड़े नेताओं को ट्वीट कर अपनी समस्या बताती है लेकिन सीएमओ के कामचोर जनता की समस्या का समाधान नहीं करते। दफ्तर में बैठकर मलाई खाते रहते हैं और भुगतना सरकार को पड़ता है। चुनावों में जनता कुर्सी छीन लेती है।
बड़े नेता और बड़े अधिकारी दफ्तरों में बैठ जितने आदेश देते हैं, जमीन पर उनका आदेश 25 फीसदी भी नहीं पूरा होता। नेताओं के आगे पीछे सिफारिश वाले अधिकारी घूमते हैं इसलिए नेता उन्हें कुछ बोल भी नहीं पाते। भाजपा के गिरते ग्राफ का एक बड़ा कारण ये भी है कि भाजपा शाषित सरकारों में आरएसएस के कम कम तजुर्बेकार कार्यकर्ताओं की भी हद से ज्यादा भर्ती हो रही है। पिछले चार-पांच वर्षों में सैकड़ों कम तजुर्बेकार आरएसएस कार्यकर्ता बड़े पदों पर बैठे हैं। एक कड़वा सच ये भी है कि भ्रष्टाचार उतना कम नहीं हुआ है जितना भाजपा की सरकारें दावे करती हैं। कई राज्यों में तो और बढ़ गया है। अधिकतर राज्यों में कम तजुर्बेकार नेता मंत्री बना दिए जाते हैं और उनमे से कई घमंडी हो जाते हैं।
देश में अब अधिकतर लोग शिक्षित हैं अच्छा बुरा जानते हैं। लगभग हर हाथ में स्मार्ट फोन है। नेता जो बोलते हैं अगर वो नहीं करते हैं तो जनता उन्हें सबक सिखाने की तैयारी में जुट जाती है और जनता नेताओं से बताती भी नहीं है कि इस बार आपकी कुर्सी छीन लेंगे। मतदान वाले दिन जनता अपने भड़ास निकाल लेती है।
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