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नैतिकता और मानवीय मूल्यों का देश और समाज में होता जा रहा है पतन- डॉ. नितेश कुमार झा

Blog-By-Dr-Nitis-Kumar-Jha
हमें ख़बरें Email: psrajput75@gmail. WhatsApp: 9810788060 पर भेजें (Pushpendra Singh Rajput)

Faridabad-  हम ऐसे देश और समाज में रह रहें हैं जहाँ हमें न्याय की भीख मांगनी पड़ रही है । जहाँ नैतिकता और मानवीय मूल्यों का पतन होता जा रहा है । अस्पताल में उपचार करवाने के लिए हमें सिफारिश की जरुरत पड़ती है, जीवन रक्षक कहे जाने वाले भगवान का दर्जा प्राप्त डॉक्टरों द्वारा किया जाने वाला इलाज इस बात पर निर्भर करता है कि रोगी का आर्थिक और सामाजिक स्तर क्या है । पुलीस से मदद के लिए हमें घूस देनी पड़ती है, न्याय का मंदिर कहे जाने वाले कोर्ट में भी लूट मची हुई है । हम डरते हैं, डर के मारे पुलीस, कोर्ट-कचहरी और घर में किसी के बिमार पड़ने पर अस्पताल जाने के नाम पर हमारा कलेजा काँप उठता है ।हम पंगे नहीं लेना चाहते, उलझना नहीं चाहते । 

"कोई भी काम आसानी से नहीं हो पाता, चाहे वह सामान्य बैंक का काम हो या बच्चे के स्कूल और कॉलेज में एडमिशन की बात या फिर पुलिस और न्यायाधीश से न्याय की ही मांग क्यों ना हो, हमें घोर अवरोध के फलस्वरूप कुंठित भावनाओं से लगातार गुजरना पड़ता है, कदम-कदम पर हमें ठोकरें  खानी पड़ती हैं ।" 

आत्महत्या करने की घटनाएं लगातार एक के बाद एक हमारे सामने आती रहती हैं । कभी विद्यार्थी तो कभी किसान, कभी पुलीस अधिकारी तो कभी सेलेब्रिटी अपनी जान खुद गँवा बैठते हैं । अपराध बढ़ते जा रहे हैं, घूसखोरी और समाज में किसी ओहदे पर आसीन लोग अपने उस ओहदे का इस्तेमाल मनमर्जी से करते हैं, वह अपने से निचले ओहदे पर कार्यरत कर्मचारी को दबाने में लगे हैं। नियम और कानून का हवाला देकर वह सामान्य जनता को गुमराह करते हैं ।

परिवार की अगर बात करें तो आपसी कलह भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है होमीसाइड, घरेलू हिंसा, बाल-शोषण, पति-पत्नी के बीच कलह और परिणामस्वरूप होने वाली वैवाहिक द्व्न्द, तलाक आमतौर पर बढ़ते जा रहे हैं । कोई किसी को समझने के लिए तैयार नहीं है, सबको अपनी भावनाओं की पड़ी है । लोगों में आक्रामकता और हिंसा बढ़ती जा रही है दूसरों को दबाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति करने में सभी लगे हुए हैं । कब तक चलेगा ये सब? कैसे खत्म होगी ये सामाजिक कूव्यवस्था? क्या मिलता है लोगों को दूसरे को क्षति पहुँचाकर या फिर दूसरे के भावनाओं को आहत करके? इस तरह के कुछ चंद सवाल हम जैसे बुद्धिजीवी पर बेसहाय लोगों के मन को बार-बार झकझोड़ते रहते हैं जो सिर्फ ये सब कुछ होते देख और समझ तो सकते हैं लेकिन कुछ कर नहीं सकते, क्योंकि बात किसी व्यक्ति विशेष या परिस्थिति की नहीं, बात है सम्पूर्ण समाज और देश की ।

 "हमें ऐसी अनुभूति होती है कि हमारा समाज और देश एक तरफ विकास की ओर अग्रसर कर रहा है, हम आत्मनिर्भर होने और बनने की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ हम अपने देश में व्याप्त आंतरिक असहिष्णुता और अस्थिरता को भी झेल रहे हैं।" 

परिस्थिति असामन्य प्रतीत होती है, समाज के बुद्धिजीवि लोग अपना पूरा ज़ोर लगाते हुए दिखते हैं, कमजोर और मजबूर स्तर के लोगों की आवाज बनने की अनवरत कोशिश करते हैं। यहाँ भी बात इतने पर नहीं रूकती, आवाज बनना सही मायने में अच्छी बात है लेकिन उन बुद्धिजीवि वर्गों द्वारा यह कहना कि मैं उसकी आवाज बना, मैंने उसको न्याय दिलाया । यह कहना कहीं ना कहीं एक स्वार्थ पूर्ण भाव को अभिव्यक्त करता है । 

यह बात सर्वविदित है कि न्याय का हकदार वो व्यक्ति खुद होता है जो न्याय पूर्ण व्यवहार करता है या जो अन्याय नहीं करता । आप अगर आवाज बनते हैं तो इसका मतलब यह कदाचित नहीं है कि आपने न्याय दिलाया या आपकी वजह से उन्हें न्याय मिला, उनको न्याय उनके अपने कृत्यों द्वारा मिला । दुःख की बात यह है कि आज हमारा समाज ऐसे कागार पर खड़ा है जहाँ न्याय माँगना पड़ता है इतना ही नहीं न्याय के लिए लड़ना पड़ता है। कितना अच्छा हो अगर न्याय बिना माँगे और बिना लड़े मिले, बात काल्पनिक जरूर लगती है लेकिन संभव है।  सोच के देखिये, हमारा समाज आज उस स्तर पर खड़ा है जहाँ न्याय दिलाने वाली संस्थाएं सवालों के घेरे में होती हैं, उनका मिडिया ट्रायल होता है। 

सामाजिक सहिष्णुता और सामाजिक स्थिरता की बात है, हम सब को गहन चिंतन करने की आवश्यकता है। अपने पद, परिस्थिति और कर्तव्यों के बारे में गहनता के साथ सोचने और समझने की आवश्यकता है। आज मानवीय मूल्य खतरे में है, न्याय दिलाने की होड़ में आज न्याय देने वाला पंच, पुलिस, न्यायालय क़ानूनी कटघरे में है, हमारी नैतिकता आज कानून के कटघरे में है।  

"मानवीयता इतनी खत्म हो गयी है कि लोगों में सही और गलत में फर्क की समझ नहीं रही है। लोगों में दूसरों के दर्द को समझने की जो क्षमता होती है वह खत्म होती जा रही है ।"

 हमें समाज में निष्पक्ष भाव से अपनी भूमिका अदा कर उसे आगे बढ़ाने में मदद करनी चाहिए बजाय कि अपने अहंकार की पूर्ति, ईर्ष्या, द्वेष, भ्र्ष्टाचार, क्रोध और हिंसा में लिप्त होकर दूसरों को तकलीफ पहुँचाने के। 

"जीवन के मूल्य को समझना, अपनी अस्तित्व को बनाये रखना, सही और गलत में फर्क को समझ कर सदैव दूसरों के हित के लिए कार्यरत रहना ही हममें मानवीयता और नैतिकता को पतन होने से बचा सकता है ।"

डॉ. नितेश कुमार झा

(मनोवैज्ञानिक, शोध अधिकारी)

इंक्लेन ट्रस्ट इंटरनेशनल, नई दिल्ली

मो. न.- 8725965541

ईमेल- niteshkumar.jha0@gmail.com

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